Tuesday, February 5, 2019

"पेन पाॅल" की याद दिलाती "द लंचबाॅक्स"

महेश भट्ट ने एक बार यह कहा था कि "कोई भी रचना ओरिजनल नहीं होती बल्कि वह कहीं न कहीं से इन्सपायर ज़रूर होती है यदि रचनाकार में कुछ विशेष होता है तो वह रचना का ट्रीटमेंट होता है या पेश करने का तरीक़ा और कुछ नही" महेश भट्ट की इस बात के बहुत गहरे मायने है क्योंकि इस हक़ीक़त से कोई भी परहेज़ नहीं कर सकता कि रचनाएं कहीं न कहीं से प्रभावित तो होती ही है क्योंकि बिना इन्सपायर हुए तो कोई रचना रचित हो ही नही सकती और जो कर दे उसे महा-महारथी कहे तो फिर ग़लत न होगा।
ऐसी ही इन्सपायर रचनाओं की श्रेणी में एक नाम  'रितेश बत्रा' की 'द लंच बाॅक्स' का नाम भी लिया जा सकता है जो साल 2013 में रिलीज़ हुई थी। द लंच बाक्स डायेरेक्शन, स्क्रीनप्ले-संवाद और अभिनय आदि दृष्टी से यक़ीनन एक बहुत ही शानदार फ़िल्म है किन्तु दर्शको को कोई चीज़ सबसे ज़्यादा बांधे रखती है तो वह फ़िल्म की कहानी होती है। इस फ़िल्म की कहानी मुम्बई मे रह रही  'एक गृहणी की है जो अपने पति का प्यार चाहती है लेकिन वह प्यार उसकी जगह किसी और को मिल रहा होता है। जिससे वह बाद मे परिचित होती है हलाॅकि उससे पहले वह अपने फ़्लैट के ऊपर वाली अंटी से पति का प्यार हासिल करने  का तरीक़ा पूछती है। अंटी उसे सलह देती है कि पति के प्यार का रास्ता पेट से होकर जाता है और इसी वजह से वह स्वादिष्ट खाना भेजकर सुकून लेती है कि शायद अब उसे पति का प्यार और वक़्त मिलेगा किन्तु मुम्बई के डिब्बे वाले जो कभी ग़लत जगह डिब्बा नहीं पहुचाते उनसे यहाँ पर ग़लती होती है और डिब्बा ग़लत पते पर पहुच जाता है। पति की बातचीत से वह समझ भी जाती है कि डिब्बा ग़लत जगह जा रहा है फिर वह ख़ाली डिब्बे में लेटर भेजती है। लेटर का जवाब आता है और दोनो के बीच लेटर राईटिंग शुरू हो जाती है हलाॅकि दोनो एक दूसरे से अपरिचित होते है फिर भी लेटर राईटिंग की मेहरबानी से दोनो में आकर्षण बढ़ने लगता है। वह दोनो मिलने के बारे में प्लान बनाते है और दोनो मिलने पहुचते भी है लेकिन आदमी नही मिलता क्योंकि उसे गृहिणी के सामने बूढ़ा होने का एहसास हो जाता है।
यही बात फ़िल्म को सबसे ज़्यादा इन्ट्रेस्टिंग बना देती है कि मीडिया के इस आधुनिक दौर में लेटर राईटिंग के ज़रिए एक युवा गृहीणी और बूढ़े कर्मचारी के बीच प्यार पनपने लगता है। फ़िल्म का यही मनोरंजक पुट इंगलिश लिटरेचर की प्रसिद्ध कहानी 'पेन पाॅल' की याद दिलाता है। पेन पाॅल एक भारतीय युवक होता है जो अग्रेज़ महिला के साथ बीस वर्षो तक लेटर राईटिंग करता है किन्तु वह महिला पेन पाॅल को इस दौरान अपनी कोई भी तस्वीर नहीं भेजती और अन्त में जब उस महिला की तस्वीर एक दूसरी महिला भेजने के साथ उसे यह बताती है कि कार दुर्घटना में महिला की मौत हो गयी है। तस्वीर देखने के बाद ही पेन पाॅल का हार्ड ब्रेक हो जाता है क्योंकि इतने वर्षो से जिसे वह युवती समझ रहा होता है दरासल वह एक वृद्ध महिला होती है और इस डर से अपनी फ़ोटो नहीं भेजती कि कही उसकी लेटर राईटिंग खत्म न हो जाए। यही डर फ़िल्म मे इरफ़ान ख़ान को भी लगता है जब वह होटल में मिलने का वादा कर के भी, नहीं मिलता। यही पर द लंचबाॅक्स अंग्रेज़ी साहित्य की कहानी पेन पाॅल की याद दिला देती है। हिन्दी सिनेमा मे बहुत कम निर्देशक ही साहित्य से प्रभावित होकर फ़िल्म का निर्माण करते है लेकिन रितेश बत्रा की यहाँ पर तारीफ़ तो बनती है कि उन्होंने साहित्य से इन्सपायर होकर 'द लंचबाॅक्स' जैसी ज़बरदस्त फ़ि्ल्म हिन्दी सिनेमा को दी।

Monday, February 4, 2019

उंगलियो का सफ़र

उर्दू शायरी के बेहतरीन शायरों मे से एक डा.राहत इन्दौरी अक्सर ये बात कहते है कि एक अच्छा शेअर कहने मे कभी-कभी दस महीने या उससे भी ज़्यादा वक़्त लग जाता है क्योंकि कोई भी अच्छा और गहरा शेअर इतनी आसानी से ज़हन मे नहीं आ पाता। अच्छे शेअर की यही ख़ासियत है कि वह दिलों मे बस जाए और जो मज़ा पूरी किताब पढ़ कर आए वह मज़ा अकेले एक शेअर ही दे दे जैसे उर्दू शायरी के महानतम शायर मिर्ज़ा ग़ालिब को मोमिन खाँ मोमिन का यह शेअर
                  तुम मेरे पास होते हो गोया
                  जब कोई दूसरा नहीं होता

इतना पसन्द आया कि ग़ालिब अपना पूरा दीवान इस शेअर के बदले दिये दे रहे थे। जब कभी इसी तरह के बेहतरीन शेअरों की सूची बनेगी तो उस लिस्ट में "शमीम शाहजहाँपुरी" के इस शेअर का एक अलग ही मुक़ाम होगा क्योंकि यह शेअर जब "सज्जाद ज़हीर" के सामने पहुचा था तो सज्जाद ज़हीर ने अपनी ख़ास डायरी में इस शेअर को दर्ज कर लिया। शमीम शाहजहाँपुरी के इस शेअर

" मै कि अल्फ़ाज़ की वादियों का ख़ुदा क़र्नहाक़र्न शोअलों में जलता रहा,
पत्थरों, काग़ज़ों, पेड़ की छाल पर ख़ून रोती रही हैं मेरी उंगलियाँ "

ने उंगलियों के  सफ़र को बहुत ख़ूबसूरती के साथ बयान करता है कि कैसे उंगलियों ने एक कभी न ख़्त्म होने वाली यात्रा तय करके विश्व के बेशुमार ज्ञान को हम तक पहुचाने का काम किया है। इन उंगलियों के ही दम से हमने साहित्य को समझा और जाना है।
जिन उंगलियों ने इस ज्ञान के ख़ज़ाने को समाज तक पहुचाया क्या उन उंगलियो को इस समाज से कुछ मिला? इसी बात की तरफ़ शमीम शाहजहाँपुरी अपने इस शेअर के ज़रिए इशारा कर रहे है कि यह ज्ञान का सफ़र जो गुफ़ाओ से शुरु होकर आज इंटरनेट तक पहुच गया है जो हर विषय को समाज तक पहुचाने का काम कर रहा है और समाज ने हर क्षेत्र मे बहुत ज़्यादा उन्नती कर ली है क्या उन उंगलियों ने भी वही उन्नती की है? जीते जी क्या क़लम के जादूगरो को वह इज़्ज़त मिली जिसके वह सभी, सही मायने मे हक़दार थे? इस बात का ज़बरदस्त उदाहरण गुरु दत्त की फ़िल्म प्यासा का वह दृश्य है जिसमे समाज को लगता है कि शायर मर चुका है और मरने के बाद समाज उसे कितना अधिक महान बना देता है जबकि वह शायर ज़िन्दा होता है और उसके जीते जी उसके भाई भी उसे पहचानने से साफ़ इंकार कर देते है। उसके मरने के बाद उससे ऐसा रिश्ता और मोहब्बत का बखान किया जाता है जैसे उन्हें सबसे ज़्यादा मोहब्बत उसी से हो और इस दिखावे का एक और उदाहरण फ़िल्म बाग़बान है कि जब तक पिता के पास पैसे नहीं होते है तब तक उनकी इज़्ज़त नहीं होती बल्कि उन्हें एक बोझ समझा जाता है और जैसे ही पैसे आते है वैसे ही दुनिया भर की मोहब्बत का दिखावा और  दोहरा एख़लाक शुरु हो जाता है। शमीम शाहजहाँपुरी का यह शेअर समाज के इस व्यवहार को बता रहा है कि किस प्रकार समाज दोहरा रवैइया और दिखावा करने में महारथ रखता है।
यह शेअर बता रहा है कि इन उंगलियों ने समाज को बहुत कुछ दिया लेकिन समाज ने उंगलियों को कुछ नहीं दिया और यह हाल सभी का है कि आप किसी के लिए कुछ भी कर दो हर आदमी डंक मारने के लिए तैयार बैठा है।